Friday, May 20, 2011

मठ

एक पेड़
कुछ पत्ते
एक आदमी
एक बैग
एक कमीज
एक टाइ

कुछ खो गया है
इन सब के बीच
ढूँढने पर खालीपन
देखने पर अँधेरा
और अँधेरे से जूझता
एक बच्चा

अर्थ और रङ्ग

कई बार जब एक शब्द उभरता है, तब मन उस शब्द के अर्थ के साथ जुड़ा एक रङ्ग, उस से जुड़ी एक गन्ध और उस का एक ठोस आकार भी महसूस करने लगता है

अक्सर जब शब्द को दुबारा याद करने की कोशिश करता हूँ तो अर्थ, रङ्ग, गन्ध, आकार सब याद आ जाते हैं पर शब्द याद नहीं आता

उस अर्थ के दूसरे कई शब्द आसपास जमा हो जाते हैं, पर हू-ब-हू उसी रङ्ग, उसी गन्ध और उसी आकार का शब्द नहीं मिलता। कभी ऐसा भी लगता है कि शब्द तो यही था पर तब किसी और रङ्ग का था, अभी-अभी याद करने की कोशिश में उस का रङ्ग बदल गया है।

Wednesday, May 4, 2011

जागने और सोने के बीच

हर क्षण
झरता,
इन क्षणों के बीच
कुछ तो गिरा
छन् से
किजिस की आवाज
बेंध गयी
पर हाय!
फिर पता न चला

यह पता न चलना
एक छल है
धोखा
एक एहसास का मरना

खाने-पीने-सोने
हँसने-गाने के बीच
कुछ छूट जाता है

सब स्पष्ट है
सच भी,
छल भी।

छब्बीस साल

कई पड़ाव बीते
जलते-सुलगते
भीगते-गमकते

सूखी जमीन
धूल उड़ाती
गीला मन
जीवन बरसाता

समय चलता रहा
पड़ाव गुजरते रहे

पर इन छब्बीस पड़ावों के बाद भी
आईने का यह चेहरा
जिसे लोग पहचानते हैं
मुझे अजनबी लगता है

ट्रेन-खिड़की-हाथ

हवा का रङ्ग देखा है कभी

पता नहीं
शायद हवा के पार जो देखते हैं हम
सब हवा के रङ्ग हों
या आँखें बन्द हों
तब हवा जो दिखाती है
वह हवा का रङ्ग हो
कभी साफ-सफेद
कभी काला
कभी धुँधला
कभी गीला

शायद ये हवा के ही नहीं
जीवन के रङ्ग भी हो

आगरा

किला,
पायल,
ताज,
वर्षा,
रात,
खण्डहर,
मकबरा,
ठूँठ,
पतझड़,
आँधी . . .

सब धुँधला
सब गड्डमड्ड

Friday, April 22, 2011

खोजता हूँ स्वयं को

स्वयं को खोजता हूँ,
बार बार
मन के अंदर कि विथियों मे,
भटकता हूँ
अंधेरी गुफाओ – गलियो मे,
टटोलता हूँ
स्मृति कि हर परछाई को,
भटकती परछाईयाँ
गर उजाले सा लगती हैं,
तो दौड पहुँचता हूँ
अपनाने,
पर हर परछाई को,
थोडी अपनी,
और बहुत परायी
पाता हूँ,
खुद को पहचानने की कोशिश मे,
और – और खो जाता हूँ,
एक अदद इंसान होने के क्रम मे,
हर बार धोखा खाता हूँ ।