स्वयं को खोजता हूँ,
बार बार
मन के अंदर कि विथियों मे,
भटकता हूँ
अंधेरी गुफाओ – गलियो मे,
टटोलता हूँ
स्मृति कि हर परछाई को,
भटकती परछाईयाँ
गर उजाले सा लगती हैं,
तो दौड पहुँचता हूँ
अपनाने,
पर हर परछाई को,
थोडी अपनी,
और बहुत परायी
पाता हूँ,
खुद को पहचानने की कोशिश मे,
और – और खो जाता हूँ,
एक अदद इंसान होने के क्रम मे,
हर बार धोखा खाता हूँ ।
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